मनुष्यों के लिए आत्मा सदृश्य अमृत है, अनैश्वेर है, शास्वत है.
गीता में श्रीक्रष्ण अपने सखा, शिष्य, प्रिय अर्जुन को कहते हैं-
"हे अर्जुन! जो ज्ञान मैनें सृष्टि के आरम्भ में सूर्य को कही थी, वही
ज्ञान, वही परमज्ञान आज तुझे मैं कह रहा हूँ." – यह घोषणा उस शरीर नाम से
जाने जाने वाले कृष्ण, जिस शरीर के जनक वसुदेवजी हें, जननी देवकीजी हैं-
उस शरीर की यह घोषणा नहीं है.
यह घोषणा करने वाला परमात्मा (परम् आत्मा) हैं , ईश्वर हैं , सर्वेश्वर
हैं, परमेश्वर हैं,
या किसी नाम से जाना जाने वाला, किसी धर्म के अनुआयियों द्वारा माना या
जाना जाने वाला-
सर्वव्यापी, सर्वकालीन, सर्वज्ञ, सर्वातीत, सर्वलिप्त, सर्वालिप्त- परम
अस्तित्व की है, अनंत अस्तित्व की है।
यह घोषणा उसी अनंत परम् अस्तित्व की है कि:
"सृष्टि के आरंभ में मैंने जो ज्ञान सूर्य को कही थी वही ज्ञान हे
अर्जुन! उसी ज्ञान को मैं आज तुझसे कह रहा हूँ." यह कहना, यह घोषणा विराट
परम् अस्तित्व की है
जो पूर्ण रूप में वसुदेवजी के पुत्र श्रीकृष्णजी के मुखारविंद से की जा
रही है। और आगे पढ़ें http://sribhagwatgeeta.blogspot.com
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*रश्मिप्रीत* http://sribhagwatgeeta.blogspot.com
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