हर किसी के। ये सारे अस्तित्व से आते हैं। इन्हें स्वास्तित्वगत मानना या
इन पर स्वामित्व का विचार या भाव भयंकर आध्यात्मिक भूल है। इसे
आध्यात्मिक चोरी या पाप भी कह सकते हैं।
इस पाप या भूल से मुक्त होने के दो मार्ग हैं- पहला: ध्यान साधना या
भक्ति भावना के द्वारा नित्य सुबह-शाम अस्तित्व को, शून्यास्तित्व को
इन्हें समर्पित करते रहना। दूसरा मार्ग है- साहित्याभिव्यक्ति।
'कल्याण संसार' के किसी साधक या साधिका को दोनों मार्गों या किसी एक
मार्ग पर नित्य गमन करना चाहिये। -अमृताकाशी
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अमृताकाशी, PSN:06/ATAMPA, रचनाकार: "कृष्ण नहीं..." Blog:
http://krishna-naheen1506.blogspot.com
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